गुजर रहा सावन, न पड़े झूले, न बोले मोर!

झूला तो पड़ गयो अमवा की डार मा, मोर-पपीहा बोले..! ऐसे कुछ बुंदेली गीत है, जो सावन मास आते ही गली-कूचों और आम के बगीचों में गूंजने लगते थे। साथ ही मोर, पपीहा और कोयल की मधुर बोली के बीच युवतियां झूले का लुफ्त उठाया करती थीं। अब न तो पहले जैसे आम के बगीचे रहे और न ही मोर की आवाज सुनाई देती है। यानी बिन झूला झूले ही सावन मास गुजर गया।
डेढ़ दशक पूर्व तक बुंदेलखंड के गांवों की बस्तियों के नजदीक आम के भारी तादाद में बगीचे हुआ करते थे, जिनकी डाल पर ससुराल से नैहर आई युवतियां अपनी सहेलियों संग झूला झूल सावनी गीत गाया करती थीं। रिम-झिम बारिश के बीच बगीचों में मोर, पपीहा और कोयल की मधुर बोली से माहौल सुहावन हो जाता था।
खासकर नाग पंचमी के दूसरे दिन मनाए जाने वाले गुडिय़ा त्योहार में झूला झूलने का रिवाज भी था। इसे बुंदेलखंड में लगातार पड़ रहे प्राकृतिक आपदाओं के कहर का असर माना जाए या वन माफियाओं की टेढ़ी नजर का परिणाम कि गांवों में एक भी बगीचे नहीं बचे, जहां युवतियां झूला डाल सकें या मोर विचरण कर सकें।
बांदा जनपद के तेंदुरा गांव की बुजुर्ग महिला देवरतिया बताती है, गुडिय़ा त्योहार के नजदीक आते ही बहन-बेटियां ससुराल से मायके बुला ली जाती थीं और वह आम के बगीचों में झूला डाल कर झूलती थीं। झुंड के रूप में इक_ा होकर महिलाएं दर्जनों सावनी गीत गाया करती थीं।
वह बताती है कि त्योहार में बेटियों को ससुराल से बुलाने की परम्परा आज भी चली आ रही है, लेकिन बगीचों के अभाव में न तो कोई झूला झूल पाता है और न ही अब मोर, पपीहा व कोयल की सुरीली आवाज ही सुनने को मिलती है।
इसी गांव की अधेड़ उम्र की महिला रानी की मानें तो दस साल पहले तक यहां गुडिय़ा त्योहार से रक्षाबंधन तक झूले का आनंद लिया जाता रहा है। वह बताती है कि गांव के राम जानकी मंदिर के पास के पेड़ में लोहे की जंजीरों से झूला डाला जाया करता था और सारे गांव की बहन-बेटियां झूलती थीं। अब पेड़ ही नहीं है तो झूला कहां डाला जाए।

इसी जिले के डभनी गांव के बुजुर्ग रघुराज कुशवाहा बताते है कि गांव के मजरे कछिया पुरवा के दनिया बाग में एक दर्जन से अधिक झूला पड़ा करते थे, बहन-बेटियां झूले के बहाने अपनी सहेलियों से मुलाकात करती थीं। जब से बाग नष्ट हो गए है, तब से ये सब लोग भूल गए है।
कुशवाहा झूला झूलने के खत्म हुए रिवाज के लिए लकड़ी की अवैध कटाई करने वालों से यादा गांवों में फैल रही वैमनष्यता को इसका कारण मानते है। वह बताते है कि पहले गांव के लोग हर बहन-बेटी को अपनी मानते रहे है, अब जमाना बदल गया है। जिसके हाथ में रक्षा सूत्र बांधा जाता है, वही भक्षक बन जाता है।
कुल मिला कर बुंदेलखंड में बाग-बगीचों के खात्मे के साथ जहां मोर-पपीहों की संख्या घटी है, वहीं समाज में बढ़ रही गैर समझदारी के कारण भाईचारे में बेहद कमी आई है। नतीजतन, झूला झूलने की परंपरा को ग्रहण लग गया है।

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