गुम हुए सावन के झूले

एक समय था जब सावन माह के आरंभ होते ही घर के आंगन में लगे पेड़ पर झूले पड़ जाते थे और महिलाएं गीतों के साथ उसका आनंद उठाती थीं। समय के साथ पेड़ गायब होते गए और मल्टीस्टोरी बिल्डिंगों के बनने से आंगन का अस्तित्व लगभग समाप्त हो गया। ऐसे में सावन के झूले भी इतिहास बनकर हमारी परंपरा से गायब हो रहे हैं।

शेष बची परंपरा
अब सावन माह में झूले कुछ जगहों पर ही दिखाई देते हैं। मंदिरों में सावन की एकादशी के दिन भगवान को झूला झुलाने की परंपरा अभी निभाई जा रही है। साथ ही क्लबों की सावन थीम पार्टियो में सावन गीतों का मजा लेने के साथ ही प्रतीक रूप में फूलों से सजा संवरा झूला आपको दिख जाएगा। धार्मिक संस्थाओं से जुड़ी आराधना विश्नोई बताती हैं, पहले मंदिरों में लगे पेड़ों पर भगवान कृष्ण को झूला झुलाने की परंपरा थी, लेकिन अब यह रस्म मंदिरों में फूलों का पालना बनाकर निभाई जाती है। एकादशी के दिन बिरहाना रोड स्थित राधा कृष्ण मंदिर, कमला नगर स्थित द्वारकाधीश मंदिर, जेके मंदिर, सनातन धर्म मंदिर, बिठूर के राधा माधव मंदिर में यह परंपरा धूमधाम से मनाई जाती है। चंदन का है पालना, रेशम की है डोर, झूला झूलें नटवर नंद किशोर का गान किया जाता है।

निभाई जाती है रस्म
सावन के झूले की परंपरा को शहर के महिला क्लब जीवित रखे हैं। एक महिला क्लब की सदस्य रंजना माहेश्वरी बताती हैं, हम हर माह एक थीम पार्टी का आयोजन करते हैं। सावन आने पर सावन थीम पार्टी में फूलों से सजे झूले लगाए जाते हैं। इतनी जगह तो होती नहीं कि कई झूले लगा सकें। इसलिए एक-दो झूले लगाकर सावन के गीतों पर मौज मस्ती करते हैं। यही माध्यम बचा है सावन की रस्म निभाने का।

शगुन था झूला झूलना

बिठूर निवासी वृद्धा रामकिशोरी देवी बताती हैं, युवावस्था के दौरान हमें सावन माह का बेसब्री से इंतजार रहता था। सावन आते ही बड़े पेड़ पर रस्सियों की सहायता से झूला डालकर दिनभर झूलते थे। शाम ढलने पर महिलाओं की टोलियां पारंपरिक सावनी गीत गाते हुये झूला झूलने के लिए निकलती थीं। शादी के बाद पहले सावन में नवविवाहिता का मायके आकर सावनी गीतों पर झूला झूलना शगुन माना जाता था।

विकल्प है मौजूद
पेड़ों की संख्या दिनों दिन कम होने से झूले डालने की जगह नहीं बची है। बदलते वक्त के साथ झूलों का डिजाइन भी बदल गया है। आजकल आपको सडक़ों के किनारे नायलॉन के झूले बिकते दिख जाएंगे। 40 रुपये से 60 रुपये में मिलने वाले यह झूले कम से कम आपको अपनी परंपरा के नजदीक पहुंचने का मौका तो देते ही हैं। इन्हे घर में डालकर छोटे बचों को तो फुसलाया ही जा सकता है। कहा जा सकता है कि पेड़ न सही बचों को बहलाने का विकल्प मौजूद है बाजार में।

 

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