सावधान! केदारनाथ में टला नहीं अभी खतरा

देहरादून। सावधान! केदारनाथ क्षेत्र में खतरा अभी टला नहीं, यहां ग्लेशियर कभी भी फिर से तबाही ला सकते हैं। भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण विभाग (जीएसआइ) के वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन में इसके संकेत दिए हैं। तबाही से बचने के लिए वैज्ञानिकों ने दो महत्वपूर्ण सुझाव दिए हैं। एक ये कि केदारनाथ में भवन निर्माण और एक साथ यादा लोगों की आवाजाही पर अंकुश लगाया जाए। दूसरा,मंदिर का निर्माण सुरक्षित स्थान पर कराया जाए। सर्वमान्य हल के लिए वैज्ञानिकों ने सरकार, मंदिर रावल व अन्य प्रमुख संतों से बातचीत की राय भी दी है।
जीएसआइ के प्रभारी निदेशक डा. एसके त्रिपाठी का कहना है कि केदारनाथ में ग्लेशियर की कची बर्फ से हालिया जो त्रासदी हुई, वह स्थिति अभी भी जस की तस है। ऐसे में भविष्य में कभी भी इसकी पुनरावृत्ति की आशंका को नकारा नहीं जा सकता। इन पहलुओं पर वर्ष 1988-89 व 1991 से 94 तक किए गए अध्ययन की रिपोर्ट में सुझाव दिया गया था कि यदि मंदिर को अन्यत्र शिफ्ट नहीं किया जा सकता तो कम से कम केदारनाथ के आसपास खड़ी हो रही घनी बस्तियों को अन्यत्र बसाया जाए।
उन्होंने बताया कि केदारनाथ मंदिर से करीब डेढ़ किलोमीटर नीचे मंदाकिनी नदी के बाई तरफ पौन किलोमीटर लंबा और 200 मीटर चौड़ा भूभाग है। सुरक्षा की दृष्टि से ये स्थान शिफ्टिंग के लिए सबसे यादा उपयुक्त है। ये अनुमान सही भी निकला, केदारघाटी में सब कुछ तबाह हो गया, लेकिन इस क्षेत्र में कोई नुकसान नहीं हुआ।
उनका कहना है कि यदि अब भी नहीं चेते तो खतरा बढ़ सकता है। हालात को देखते हुए सरकार को मंदिर का निर्माण अन्यत्र कराने पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए। यदि धार्मिक परंपराएं इसके आड़े आ रही हों तो कुछ ऐसे दूसरे विकल्पों पर विचार किया जाना चाहिए, जिनसे नुकसान की कम से कम आशंका हो।
यह धर्म के साथ-साथ मानव रक्षा का भी सवाल है। भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण विभाग के वैज्ञानिकों की राय भी हमारे लिए अहम है, उस पर अवश्य चर्चा कराई जाएगी। उनकी किसी आशंका को भी नजरंदाज नहीं किया जाएगा, क्योंकि देवताओं की पूजा का महत्व इनसानों से ही है। हमने भी एक प्रस्ताव तैयार किया है, जिसमें केदारनाथ आने व जाने के लिए अलग-अलग मार्ग प्रस्तावित हैं, ताकि केदारनाथ मार्ग पर एक साथ अत्यधिक भीड़ को थामा जा सके। केदारनाथ जाने के लिए कुंड, गुप्तकाशी, फाटा, रामनगर, सोनप्रयाग, गौरीकुंड व रामबाड़ा रूट और वापसी के लिए जाल, कालीमठ, राउलेख, मनसुना व ऊखीमठ रूट का प्रयोग करने का प्रस्ताव है। जल्द यह मसौदा मुख्यमंत्री को सौंपा जाएगा।
न केवल भूगोल की दृष्टि से, बल्कि जनता की सुरक्षा की दृष्टि से भी सोचना चाहिए। यह सर्वहित में जरूरी भी है। साथ ही यह नहीं भूलना चाहिए कि हिमालय में कोई भी स्थान पर्यावरणीय संवेदनशीलता के लिहाज से सुरक्षित नहीं है। यह बात हर लिहाज से साबित भी है, फिर भी हमें रहना है और पूजा-पाठ भी किया जाना है। धार्मिक रीति-रिवाजों व उनकी स्थान विशेष की महत्ता से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। हिमालय में जनता का आना-जाना रहेगा तो देश की सुरक्षा भी होगी। अव्यावहारिक बात करने वाले वैज्ञानिकों को देश हित में भी सोचना चाहिए।

 

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