श्रमसाध्य जीवन और विधि-विधान

पुस्तक समीक्षा

श्रीनिवास जोशी

डॉ. नारायण लाल नड्डा ने 94 वर्ष की आयु में अपनी आत्मकथा लिखी है और नाम दिया है ‘विधि की एक रचना’, जिसे नोयडा स्थित मेपल प्रेस ने छापा है। वह मानते हैं कि कर्म का अपना महत्व है परन्तु नियति मनुष्य के जीवन की अन्तिम निर्णायक होती है, इसलिए हर मानव ‘विधि की एक रचना’ है। नड्डा अपना चरित्र बखान करते हुए कहते हैं कि वह संकोची प्रवृत्ति के केवल शिष्टाचार के नाते ही बातें करने वाले स्वभाव से एकांतवासी हैं तथा मूलत: स्वावलम्बी हैं। वह न तो महत्वाकांक्षी हैं और न ही उनके दिल में कोई चाह है। ऐसे व्यक्ति को नियति जो देती गई, वह उसे स्वीकारते रहे। हां, कर्म वह करते रहे, उससे पीछे नहीं हटे। हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर में 3 जुलाई, 1925 को जन्मे नारायण बनारस को अपनी संस्कार तथा आकार भूमि मानते हैं। यहीं उन्होंने स्कूली शिक्षा पूर्ण की तथा फिर काश्ाी हिन्दू विश्वविद्यालय से एम.काम किया। सन‍् 1958 में आपने पटना विश्वविद्यालय से ‘कैपिटल मार्केट इन इन्डिया’ पर शोध कर डाक्टरेट की उपाधि हासिल की। डॉ. नड्डा अपनी आत्मकथा को एक व्यक्ति विशेष के जीवन में घटित घटनाओं की क्रमबद्ध तरीके से प्रस्तुति मानते हैं। उन्होंने इस प्रस्तुति को बहुत ही सरल भाषा में संवारा है जो हर पाठक के समझ में आती है और अपनी आत्मकथा को ‘पर भाषा और पर भाव’ से अछूता रखा है। रोम में उनके साथ हुई धोखाधड़ी, बैंकाक की दुकान में केवल ठंडा कोकाकोला पीने के लिए जाना, अपने भाषण मंे बी.काम प्रोडयूसिंग एम.काम. कहना जैसे कई प्रसंग इस आत्मकथा को रोचक बनाते हैं। इन्होंने क्रमबद्ध तरीके से अपना शिक्षा तथा शिक्षा-प्रशासन से जुड़ा सफर व्याख्यायित किया है जो सन‍् 1947 में हर प्रसाद दास जैन कॉलेज, आरा ¼बिहार½ से आरम्भ हुआ और पटना विश्वविद्यालय के आचार्य तथा रांची विश्वविद्यालय के कुलपति से लेकर 27 सितंबर, 1995 को हिमाचल प्रदेश स्कूल शिक्षा बोर्ड के अध्यक्ष के रूप में सम्पन्न हुआ। डॉ. नड्डा एक जगह लिखते हैं कि वह मनोवृत्ति, अपने दृष्टिकोण और अपनी अतिश्ायोक्ति को आत्मकथा में समावेश्ा नहीं होने देने का प्रयास करते हैं। पर उनके भीतर का शिक्षक चुप नहीं बैठता और शिक्षकों पर बेबाक टिप्पणी करता है : ‘आज शिक्षक के लिए शिक्षा देना उतना महत्वपूर्ण नहीं रह गया है जितना धन कमाना हो गया है।’ उनका कहना है कि शिक्षक भी तो पहले विद्यार्थी था। जो गुण महापुरुषों ने विद्यार्थियों के लिए गिनाए हैं, यथा काक चेष्टा, बको ध्यानम आदि, वे शिक्षकों पर भी तो लागू होने चाहिए। वह आज के शिक्षक से उदासीन हैं, जिसमें अध्ययन, ईमानदारी, चरित्र एवं नैतिकता की कमी नजर आ रही है।
पुस्तक : विधि की एक रचना लेखक : डॉ. नारायण लाल नड्डा प्रकाशक : मेपल प्रेस प्रा. लि. नोएडा पृष्ठ : 225

You might also like

Comments are closed.